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कविता

कैंची

जितेंद्र श्रीवास्तव


गुम हो गई कैंची
कुछ पल के लिए
गुम हो गया मन का उजास

मैं दुखी नहीं रह सकता
जीवन भर
लेकिन इस क्षण के दुख को
झिड़क भी नहीं सकता

मैं जानता हूँ
कैंची तो मिल जाएगी
पचीस पचास की अधितम सौ डेढ़ सौ की
संभवतः पहले से अधिक धारदार

अभी कंपनियों ने
बनाना बंद नहीं किया है कैंची

कोई उससे जेब काटे नसें काटे
या काट ले जिगर
इससे झुठलाया नहीं जा सकता कैंची के सही उपयोग को

कैंची बनी थी जीवन सँवारने के लिए
अब क्या करे वह
जब कोई बनाने की जगह
बिगाड़ ले या बिगाड़ दे जीवन उससे
काटने लगे उससे आत्मा देश या समाज की

आज सुबह जो खो गई
उसी कैंची से वर्षों पहले
मैंने सँवारी थीं अपनी मूँछें पहली बार

रेखों का मूँछों में बदलना
फिर उन्हें सँवारना
आसान नहीं है
उन धड़कनों को आज शब्द देना

वह कैंची साक्षी थी
मेरे उन पलों और उठते दिनों की
फिर मेरे प्रौढ़ होने
मेरी मूँछों के पकने की भी

जो खो गई
जिसे चुरा ले गया यमदूत-सा कोई
बहुत सारे सामानों के साथ
पुतलियों के ऐन नीचे से
वह तथ्य के रूप में महज एक कैंची थी
जिसकी कीमत इन दिनों सौ रुपये होगी
ज्यादा से ज्यादा डेढ़ सौ
लेकिन मैं इतना ही मानकर अपमान नहीं कर सकता
उसके लंबे साहचर्य का

मैं जानता हूँ
उसकी यादें हर पल नहीं रह सकतीं मेरे साथ
इस जीवन में बहुत कम हैं खाली पल
और काम हैं बहुत सारे
लेकिन वह जरूर याद आएगी कभी-कभी
औचक
यूँ ही।


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